“मैं” के अंदर से “बाहर” तक का सफ़र…..
बहुत धूमिल सी अब मुझमें मैं रह गयी हूँ…
शून्य सी जैसे अम्बर में कहीं खो गयी हूँI
यकीन हो चला है यही शून्य जीवन है…
ना कभी कुछ मेरा था ना कुछ आज मेरा है…
ना कोई गुमान बाक़ी है ना कोई मान बाक़ी हैI
अनंत तक जाने में… खो जाने में…
“मैं” के अंदर से बाहर तक का सफ़र…
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