जिंदगी यदि किसी मोड़ पर आ कर उलझ-पुलझ होकर जलेबी सी बनने लगे तो उसे चाशनी में डबो कर मज़े लेने की योजना पर अमल शुरू कर देना चाहिए |
जीवन की इस भागदौड़ में यदि थोड़ा सा होश और हंसी मजाक का पुट रख लिया जाए तो मसले अक्सर हल हो जाते हैं और इन मसलों में जिन्दगी के ऐसे रंग निखर आते हैं जिन्हें बार बार याद करके कुछ इस तरह सीख और मज़ा दोनों लिया जा सकता है।
चलो आज मैं आपको अपने बचपन का एक किस्सा बताती हूँ जिसे याद करके आज मज़ा भी आया और बहुत कुछ सीखने को भी मिला है |
मेरा बचपन पंजाबियों, मुस्लिमों और अन्य धर्मों (Mix religion) वाले लोगों के बीच बीता है | हाँ आस पड़ोस में बेशक अलग अलग धर्मों के पड़ोसी थे, लेकिन सभी आंटियों कि प्रवृति (Nature) बिल्कुल एक जैसी |
अब होता क्या था कि गर्मियों के दिनों में सभी आंटियां शाम के समय ऊपर छत पर बैठती थी और वो ही इधर उधर की बातें, चुगलियाँ, एक दुसरे की बातें करके ज़ोर- ज़ोर से ठहाके लगाने और bla! bla! bla! अब यही टाइम हम बच्चों का भी छत पर क्रिकेट खेलने का होता था क्योंकि ग्राउंड में बड़े लड़कों की टीम होती थी तो वहां भी हमारे लिए कोई जगह नहीं होती थी | तो उन दिनों हमारे लिए हमारा प्ले ग्राउंड हमारी छत ही थी | हमारे ग्रुप में हम 6 मेम्बर थे जिनमें हम दो लड़कियां और 4 लड़के | बाहर दूसरे बेह्ड़े (like other block) वाले किसी भी बच्चे को हम अपने ग्रुप में शामिल नहीं करते थे | टीम स्पिरिट ऐसी कि अगर कोई एक कुछ करेगा तो सब एक साथ करेंगे |
हाँ तो एक बार क्या हुआ हम छत पर क्रिकेट खेल रहे थे और साइड में 2-4 आंटियां बैठी बातें कर रही थी और उन्हें हमारे क्रिकेट खेलने पर भी दिक्कत थी क्योंकि हमारे शोर शराबे में उनकी बातों का मज़ा किरकिरा हो रहा था और साथ ही साथ उन्हें ये डर भी था कि कहीं बॉल उनकों न लग जाये | तो कभी कोई आंटी तो कभी कोई आंटी बार बार बोल रही थी कि “न्याणों तुसीं मनदें नी, ऐथे ना खेडिया करो” | लेकिन हम में से फिर कोई बोल देता कि “आंटी लास्ट ऑवर है ये या मम्मी लास्ट ऑवर है” |
फिर जब मुझे बैटिंग का मौका मिला तो हुआ ये कि रन लेने के चक्कर मैंने अपनी चप्पल उतार दी और एक पतली सी टाइल वाली स्टेपू (खेलने वाली पिचो) मेरे बाएं पैर में ज़ोर से चुभ गयी और फिर पैर से खून ही खून बहने लगा | जिसका निशान आज भी मेरे बाएं तले पर है | तब रतन मेरी मम्मी को ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा कि आंटी वो गिर गयी, उसको पैर में चोट लगी गयी | तभी मेरे भाई मनोज (जो हमारे साथ ही खेल रहा था) ने कहा – ओये मेरी मम्मी को मत बुला और फिर मुझे बोला “मम्मी डांटेगें निशु और पापा भी डांटेंगे” | वो डर गया था | बाकि सब बच्चे छत पर ही पड़े एक पुराने कपड़े के साथ मेरे पैर से बह रहे खून को रोकने की कोशिश कर रहे थे |
आंटियां भी मेरे आस पास ही खड़ी थीं और रतन कि मम्मी जो पंजाबी हैं बोले “होर खेड लो, खा ली चोट हुन पैर विच, मनदें तां है नी | और आखिर में उन्होंने पता है क्या कहा ? “लै लै स्वाद” मैंने यह पॉइंट नोट कर लिया और बचपन में इन शब्दों को मैं बहुत इस्तेमाल भी करती थी | यू नो जैसे हमें बड़ों वाली फीलिंग आती हो कुछ बातों को बोलकर | बिल्कुल वैसे ही |
लेकिन आज फिर मुझे वो बचपन वाला सारा किस्सा ताज़ा हो गया जब एक न्यूज़ पढ़ते पढ़ते ये महसूस हुआ कि जब कभी भी कोई व्यक्ति अपनी ऑथोरिटी एक्ससीड करता है और हम कुछ कर नही पाते तब हम समय का इंतज़ार करते हैं। अक्सर कुदरत कुछ न कुछ जस्टिस कर ही देती है और तब हमेशा मन में से यह बोल उभर ही आते हैं “लै लै स्वाद” कभी कभी कोई किस्सा हमें बहुत बड़ी सीख दे जाता है क्योंकि बस देखने के नज़रिए का ही तो फर्क है |
“लै लै स्वाद” ये तीन शब्द बहुत बड़े स्ट्रेस बस्टर हैं और मेरे लिए हमेशा काम करते आये हैं क्योंकि जहां सामने वाला अनुशासन तोड़ कर अपनी ऑथोरिटी को एक्ससीड करके धक्का या जुल्म करने का प्रयास करता है और हम कुछ कर नही पाते। तो मैंने अपने अनुभव से सीखा है कि जिस सवाल में फार्मूला गलत लगा होगा उसका उत्तर भी गलत ही निकलेगा और सब्जेक्ट अपने कर्मों के फेर में अपने आप फंस ही जाएगा | अपने पास पहले से ही अल्गोरिदम तैयार है “लै लै स्वाद” इट वर्क्स रियली !
आप मुझे comment में जरुर बताना कि क्या मेरा ये अल्गोरिथम ठीक है और आप जब कभी कहीं ऐसी सिचुएशन में फंस जाते हो तो आप उस सिचुएशन को कैसे हैंडल करते हो | मुझे आपके कमेंट का इंतज़ार रहेगा |
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