एक पुरानी कविता को कुछ अलग शब्दों में दर्शाने की छोटी सी एक कोशिश :-
ये ग़म क्या दिल की आदत है? नहीं तो
किसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो
है वो इक ख़्वाब-ए-बे ताबीर तो इसको
भुला देने की नीयत है? नहीं तो
किसी के बिन, किसी की याद के बिन
जीने की हिम्मत है? नहीं तो
किसी सूरत पर अब दिल नहीं लगता? हां
तो कुछ दिनों से ये हालत है? नहीं तो
तेरे इस हाल पर सब को हैरत है
तुझे भी इस पे हैरत है? नहीं तो
उनकी बहुत उम्मीदों से तुझको
अमन पाने की हसरत है? नहीं तो
तू रहता है ख्याल-ए-ख्वाब में गम
तो इस वजह से ये फुरसत है? नहीं तो
वहां वालों से है इतनी मोहब्बत
तो यहां वालों से नफरत है? नहीं तो
सबब जो इस जुदाई का बना है
क्या वो मुझसे भी खुबसूरत है? नहीं तो
शुक्रिया !!!