Nisha Kaushik

ये करवटे भी यूँ बेवजह नहीं

सुनों ! ये करवटें भी यूँ बेवजह नहीं हैं… कुछ तो है दिल में…. जो अब तक कहा नहीं है… ये करवटें भी यूँ बेवजह नहीं हैं | फिर उनसे दूर जाने के बाद… पल पल मन ही मन उनसे ही बाते करना भी बेवजह नहीं है | कभी लगता सब कुछ बेवजह ही है…

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अब क्या करना…

कोई ग़ज़ल सुना कर क्या करना, यूँ बात बढ़ा कर क्या करना | चाहे अब कुछ हुआ भी हो, तो अब दुनिया को बता कर क्या करना, तुम साथ निभाओ चाहत से, कोई रस्म निभा कर क्या करना | तुम खफ़ा भी अच्छे लगते हो, फिर तुमको मना कर क्या करना… उलझन भरी इस ज़िन्दगी

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क्या लिखूं : तुम्हें लिखूं या न लिखूं

क्या लिखूं तुम्हें ??? मैं समझ नहीं पा रही हूँ क्या लिखूं ??? आपकी वो अच्छी बातें लिखूं या वो बेवजह गुस्सा करना ??? या जो कहना है वो लिखूं ??? फिर सोचती हूँ …. लिखूं या न लिखूं | कभी-कभी लगता है… न जान पाए आप मुझे या शायद मैं तुम्हें… अब तुम ही

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“अपनी संस्कृति का ही पालन करो ना, मुझसे जरा भी मत डरो ना” – करोना

राम युग में दूध मिलाऔर कृष्ण युग में घीकोरोना युग में काढा मिलेडिस्टेंस बना कर पी जब दुनिया लेके बैठी हैबड़े-बड़े परमाणुपर ठोक गया सबको एकछोटा सा विषाणु कल रात सपने मेंआया कोरोनाउसे देख जो मैं डरी और शुरू किया रोनातो, मुस्कुरा  केवह बोला मुझसे मत डरो नाकितनी अच्छी है वो तुम्हारी संस्कृति न चूमते, न गले

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ये ग़म क्या दिल की आदत है? नहीं तो

एक पुरानी कविता को कुछ अलग शब्दों में दर्शाने की छोटी सी एक कोशिश :- ये ग़म क्या दिल की आदत है? नहीं तोकिसी से कुछ शिकायत है? नहीं तो है वो इक ख़्वाब-ए-बे ताबीर तो इसकोभुला देने की नीयत है? नहीं तो किसी के बिन, किसी की याद के बिनजीने की हिम्मत है? नहीं

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